Wednesday, July 28, 2010

'आखिर कब तक....'

अपने बोझिल पलकों से

आंसुओ का सैलाब रोके

गतिहीन होते धडकनों को

आखिर कब तक हाँकता जाऊंगा मैं ....


बेवजह मुफ़्त में मिले

हरएक अनचाहे गम को

खुशी के आगमन का प्रसाद मान

आखिर कब तक फांकता जाऊंगा मैं ....


कहीं नासूर न बन जाये

वही पुराने उबलते ज़ख्म

उम्मीदों के कच्चे धागों से इन्हें

आखिर कब तक टांकता जाऊंगा मैं ....


है अँधेरा बहुत यहाँ

अपनी एड़ियाँ उठाये

रोशनदानो की ओर

आखिर कब तक झांकता जाऊंगा मैं ....


इस नाजुक से दिल को

दुखो के गर्म तेल में

तेज आंच पर निरंतर

आखिर कब तक छांकता जाऊंगा मैं ....